भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माली के प्रति / सियाराम शरण गुप्त

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:21, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सियाराम शरण गुप्त |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>माली! देखो …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माली! देखो तो तुमने यह
कैसा वृक्ष लगाया है!
कितना समय हो गया, इसमें
नहीं फूल भी आया है!

निकल गये कितने वसंत हैं,
बरसातें भी बीत गईं;
किंतु प्रफुल्लित इसे किसी नें
अब तक नहीं बनाया है!

साथ छोड़ती जाती है सब
शाखा आदि रुखाई से।
शुष्क हुए पत्तों को इसनें
इधर-उधर छितराया है।

अतुल तुम्हारे इस उपवन की
इससे भी कुछ शोभा है?
क्या निज कौशल दिखलाने को
इसे यहाँ उपजाया है।

अरे, काट ही डालो इसको
अथवा हरा भरा कर दो,
कहें सभी आहा! तुमने वह
कैसा वृक्ष लगाया है!