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मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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मिलजुल के जब क़तार में चलती हैं चींटियाँ।
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ।

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी,
तीखी ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ।

आँचल न माँ का सर पे न साया है बाप का,
जीवन की तेज़ धूप में पलती हैं चींटियाँ।

चलना सँभल के राह में, जाएँ न ये कुचल,
खाने कमाने रोज़ निकलती हैं चींटियाँ।

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई,
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ।