भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
  
 
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
 
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।  
+
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
  
 
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
 
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।  
+
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।
 
</poem>
 
</poem>

17:05, 24 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।

लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।

कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।

रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।

करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।