भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझे न पूछो आज आदमी क्यों रो रहा है / सांवर दइया

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 28 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>मुझे न पूछो आज आदमी क्यों रो रहा है। उसे ढूंढ़ो, जिसकी वजह से यह …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे न पूछो आज आदमी क्यों रो रहा है।
उसे ढूंढ़ो, जिसकी वजह से यह हो रहा है।

चौराहे पे जले न जाने ये चिराग़ कैसे,
अब सड़क पे अंधेरा और गहरा हो रहा है।

आवाज क्या, चीखें तक नहीं पहुंच रहीं वहां,
इस निज़ाम का हर आदमी बहरा हो रहा है।

ज़माने को फुरसत नहीं मिल रही आंसुओं से,
उनकी शोहरत की ख़ातिर जलसा हो रहा है।

तुम लेट गए घर की खिड़कियों पे तान पर्दे,
क्या वज़ह फिर मेरे दिल में दर्द हो रहा है।