भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मेरी ज़बान में जो इतनी तल्ख़ियाँ होंगी / राम गोपाल भारतीय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=राम गोपाल भारतीय | संग्रह = }} {{KKCatGhazal}} <poem> मेरी ज़बा…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:33, 11 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
मेरी ज़बान में जो इतनी तल्खियाँ होंगी
ये आज की नहीं सदियों की ग़लतियाँ होंगी
अगर ये मुल्क़ कभी फिर से टूट कर बिखरा
तो ज़िम्मेदार हमारी ये जातियाँ होंगी
फ़ज़ा में घोल दिया ज़हर तो सोचो कैसे
हवा में तितलियाँ पानी में मछलियाँ होंगी
हमारी आँख का जल भाप बन गया शायद
बरस रही जो, उस जल की बदलियाँ होंगी
ख़ुदा का शुक्रिया करना जनम पे इनके भी
सहारा तेरे बुढ़ापे का बेटियाँ होंगी