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मेरी हरि! एकहुँ बात न मानी / स्वामी सनातनदेव

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राग घैरारि, ताल मूल 28.6.1974

मेरी हरि! एकहुँ बात न मानी।
करी वही मेरे मनमोहन! जो तुमने मो हितकी जानी॥
मैं चाही मेरे मन की हो, करतो और कहा अग्यानी।
पै तुम परम हितू मेरे हरि! करी वही जो तुमहिं सुहानी॥1॥
मेरे साँचे सुहृद स्याम! तुम, तुमसों का मो मनकी छानी।
पै तुम करी, करहुगे सोई, जामें मेरी सुगति समानी॥2॥
मेरी सुगति सुमति तुम हो हरि! और न कोइ गति-मति मैं जानी।
तुमहिं छाँड़ि चाहों न और कछु-यही एक मो मन हठ ठानी॥3॥
सब कछु करहु स्याम! निज मनकी, पै इतनी कीजै मो मानी
तुम बिनु चहों न वैकुण्ठ हूँ मैं, तुम सँग मोहिं नरक रजधानी॥4॥
रहे प्रानधन! प्रीति निरन्तर, मिलै न भलै कोउ सहदानी<ref>चिह्न</ref>।
रहें प्रीति में पगे प्रान नित, और न सुगति-सुमति मैं जानी॥5॥

शब्दार्थ
<references/>