भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[अज्ञेय]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:अज्ञेय]]
+
|रचनाकार=अज्ञेय
 +
|संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
 +
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
 +
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
 +
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
 +
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
 +
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
 +
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ? 
  
मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,<br>
+
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
मैं कब कहता हूं जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?<br>
+
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,<br>
+
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?<br><br>
+
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने
  
मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?<br>
+
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?<br>
+
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?  
मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?<br>
+
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?<br><br>
+
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है 
  
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?<br>
+
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?<br>
+
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं प्रस्तुत हूं चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-<br>
+
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !<br><br>
+
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ 
  
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-<br>
+
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?<br>
+
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-<br>
+
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-  
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है<br><br>
+
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने 
  
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-<br>
+
'''बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937'''
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !<br>
+
</poem>
मैं कहता हूं, मैं बढ़ता हूं, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूं<br>
+
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूं<br><br>
+
 
+
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने<br>
+
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !<br>
+
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-<br>
+
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने<br><br>
+

22:10, 19 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

 
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937