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मैं आग तो दबा लूँ दिले नातवाँ ज़रूर / ज़फ़र गोरखपुरी

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मैं आग तो दबा लूँ दिले नातवाँ<ref>कमज़ोर दिल</ref> ज़रूर।
सुलगेगी कोई शै तो उठेगा धुआँ ज़रूर।

काँटों पे होंठ इतने मुलायम न थे कभी
पैवस्त होंगे मेरे लबों के निशा ज़रूर।

मैं अपनी धूप से भी गया इस फ़रेब में
दीवार है तो छाँव भी होगी वहाँ ज़रूर।

आया न रात दिल के धड़कने का एतबार
हाँ, उनकी आहटों का हुआ था गुमाँ ज़रूर।

जाँ लेवा तो नहीं है त्वेरी कमतवज़्ज़ुही<ref>कम ध्यान देना</ref>
कुछ हट गया है सर से मेरे आसमाँ ज़रूर।

पलकों से क्यूँ गुबार उलझता है दम-ब-दम
आँखों में ज़िन्दा है कहीं कोई समाँ ज़रूर।

शब्दार्थ
<references/>