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"मैं और मिरी आवारगी / जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर

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फिरते हैं कब से दरबदर अब इस नगर अब उस नगर<br>
 
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एक दूसरे के हमसफ़र मैं और मेरी आवारगी<br>
 
एक दूसरे के हमसफ़र मैं और मेरी आवारगी<br>

19:33, 24 जून 2009 का अवतरण

फिरते हैं कब से दरबदर अब इस नगर अब उस नगर
एक दूसरे के हमसफ़र मैं और मेरी आवारगी
ना आशना हर रहगुज़र ना मेहरबाँ है एक नज़र
जायें तो अब जायें किधर मैं और मेरी आवारगी

हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बरबाद थे
बिफ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिलशाद थे
वो चाल ऐसि चल गया हम बुझ गये दिल जल गया
निकले जला के अपना घर मैं और मेरी आवारगी

वो माह-ए-वश वो माह-ए-रूह वो माह-ए-कामिल हूबहू
थीं जिस की बातें कूबकू उस से अजब थी गुफ़्तगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई और मुझ को ज़िद सी हो गई
लायेंगे उस को ढूँड कर मैं और मेरी आवारगी

ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया
कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कह कर वो दिलबर गया ती लिये मैं मर गया
रोते हैं उस को रात भर मैं और मेरी आवारगी

अब ग़म उठायें किस लिये ये दिल जलायें किस लिये
आँसू बहायें किस लिये यूँ जाँ गवायें किस लिये
पेशा न हो जिस का सितम ढूँढेगे अब ऐसा सनम
होंगे कहीं तो कारगर मैं और मेरी आवारगी

आसार हैं सब खोट के इम्कान हैं सब चोट के
घर बन्द हैं सब कोट के अब ख़त्म है सब टोटके
क़िस्मत का सब ये खेल है अंधेर ही अंधेर है
ऐसे हुए हैं बेअसर मैं और मेरी आवारगी

जब हमदम-ओ-हमराज़ था तब और ही अन्दाज़ था
अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझ से हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या
एक बेहुनर एक बेसबर मैं और मेरी आवारगी