भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं शीशे की तरह गर टूट जाता / ज्ञान प्रकाश विवेक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(पृष्ठ से सम्पूर्ण विषयवस्तु हटा रहा है)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
| रचनाकार= ज्ञान प्रकाश विवेक 
 +
}}
 +
[[Category:ग़ज़ल]]
 +
<poem>
 +
मैं शीशे की तरह गर टूट जाता
 +
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता
  
 +
उसे भी तैरना आता नहीं था
 +
मुझे वो डूबने से क्या बचाता
 +
 +
मेरी मजबूरियाँ हैं दोस्त वरना
 +
किसी के सामने क्यूँ सर झुकाता
 +
 +
ये दस्ताने तेरे अच्छे हैं लेकिन
 +
तू मुझसे हाथ वैसे ही  मिलाता
 +
 +
खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी
 +
नये बाज़ार में डरता-डराता
 +
 +
अगर होता मैं इक छोटा-सा बालक
 +
तो फिर कागज़ के तैय्यारे बनाता
 +
 +
वो रिश्तों को कशीदा कर गया है
 +
मिला है मुझसे लेकिन मुँह चिढ़ाता.
 +
</poem>

19:11, 11 अक्टूबर 2008 के समय का अवतरण

 
मैं शीशे की तरह गर टूट जाता
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता

उसे भी तैरना आता नहीं था
मुझे वो डूबने से क्या बचाता

मेरी मजबूरियाँ हैं दोस्त वरना
किसी के सामने क्यूँ सर झुकाता

ये दस्ताने तेरे अच्छे हैं लेकिन
तू मुझसे हाथ वैसे ही मिलाता

खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी
नये बाज़ार में डरता-डराता

अगर होता मैं इक छोटा-सा बालक
तो फिर कागज़ के तैय्यारे बनाता

वो रिश्तों को कशीदा कर गया है
मिला है मुझसे लेकिन मुँह चिढ़ाता.