भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यहाँ थी वह नदी / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=मंगलेश डबराल
 
|रचनाकार=मंगलेश डबराल
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita‎}}
 +
<poem>
 +
जल्दी से वह पहुँचना चाहती थी
 +
उस जगह जहाँ एक आदमी
 +
उसके पानी में नहाने जा रहा था
 +
एक नाव
 +
लोगों का इन्तज़ार कर रही थी
 +
और पक्षियों की कतार
 +
आ रही थी पानी की खोज में
  
जल्दी से वह पहुँचना चाहती थी<br>
+
बचपन की उस नदी में
उस जगह जहां एक आदमी<br>
+
हम अपने चेहरे देखते थे हिलते हुए
उसके पानी में नहाने जा रहा था<br>
+
उसके किनारे थे हमारे घर
एक नाव<br>
+
हमेशा उफ़नती
लोगों का इंतज़ार कर रही थी<br>
+
अपने तटों और पत्थरों को प्यार करती
और पक्षियों की कतार<br>
+
उस नदी से शुरू होते थे दिन
आ रही थी पानी की खोज में<br><br>
+
उसकी आवाज़
 +
तमाम खिड़कियों पर सुनाई देती थी
 +
लहरें दरवाज़ों को थपथपाती थीं
 +
बुलाती हुईं लगातार
  
बचपन की उस नदी में<br>
+
हमे याद है
हम अपने चेहरे देखते थे हिलते हुए<br>
+
यहाँ थी वह नदी इसी रेत में
उसके किनारे थे हमारे घर<br>
+
जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे
हमेशा उफनती<br>
+
यहाँ थी वह नाव इंतज़ार करती हुई
अपने तटों और पत्थरों को प्यार करती<br>
+
उस नदी से शुरू होते थे दिन<br>
+
उसकी आवाज़<br>
+
तमाम खिड़कियों पर सुनायी देती थी<br>
+
लहरें दरवाज़ों को थपथपाती थीं<br>
+
बुलाती हुईं लगातार<br><br>
+
  
हमे याद है<br>
+
अब वहाँ कुछ नहीं है
यहाँ थी वह नदी इसी रेत में<br>
+
सिर्फ़ रात को जब लोग नींद में होते हैं
जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे<br>
+
कभी-कभी एक आवाज़ सुनाई देती है रेत से
यहाँ थी वह नाव इंतज़ार करती हुई<br><br>
+
</poem>
 
+
अब वहाँ कुछ नहीं है<br>
+
सिर्फ रात को जब लोग नींद में होते हैं<br>
+
कभी-कभी एक आवाज़ सुनायी देती है रेत से<br>
+

22:34, 12 मई 2013 का अवतरण

जल्दी से वह पहुँचना चाहती थी
उस जगह जहाँ एक आदमी
उसके पानी में नहाने जा रहा था
एक नाव
लोगों का इन्तज़ार कर रही थी
और पक्षियों की कतार
आ रही थी पानी की खोज में

बचपन की उस नदी में
हम अपने चेहरे देखते थे हिलते हुए
उसके किनारे थे हमारे घर
हमेशा उफ़नती
अपने तटों और पत्थरों को प्यार करती
उस नदी से शुरू होते थे दिन
उसकी आवाज़
तमाम खिड़कियों पर सुनाई देती थी
लहरें दरवाज़ों को थपथपाती थीं
बुलाती हुईं लगातार

हमे याद है
यहाँ थी वह नदी इसी रेत में
जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे
यहाँ थी वह नाव इंतज़ार करती हुई

अब वहाँ कुछ नहीं है
सिर्फ़ रात को जब लोग नींद में होते हैं
कभी-कभी एक आवाज़ सुनाई देती है रेत से