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यह गंध उड़ती है देश की हवाओं में / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम उसे निर्जन तलैयों के पीछे
तलाशने मत जाना
मत खोजना उसकी छाया
किंशुक के पत्तों की ओट

ढूँढना मत
उदास चैत के मौसम में
हवा में घुलता-छाता कोई गीत

वह तो होगी अब
किसी और ही वीराने में
किसी और ही संसार में
गुलामी करती और
अपने दुखों को रोज़ भूलती

मत खोजने जाना तुम वह हंसी
जो बहुत कुछ कहती थी

घाट के पत्थरों को देखो ---
कोई रंग वहां छूटा रह गया है

हर गुज़रे चैत का है
एक रंग, एक गंध
प्यार से परे है यह रंग
यह गंध उड़ती है देश की हवाओं में
यह रंग जो है उसका होना ।
उसे मत खोजना
किसी पेड़, किसी मैदान
किसी सड़क, किसी घर
किसी सहन में....