भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यह ज़िन्दगी तो कट गयी काँटों की डाल में / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
  
 
साज़ों को ज़िन्दगी के बिखरना नहीं था यों  
 
साज़ों को ज़िन्दगी के बिखरना नहीं था यों  
कुछ तो हुई थी भूल किसी की सँभाल में   
+
कुछ तो हुई थी भूल किसीकी सँभाल में   
  
 
आहट तो उनकी आयी पर आँखें हुईं न चार
 
आहट तो उनकी आयी पर आँखें हुईं न चार

02:26, 7 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


यह ज़िन्दगी तो कट गयी काँटों की डाल में
रखते हो अब गुलाब को सोने के थाल में

कुछ तो है बेबसी कि न आती है मौत भी
मछली तड़प रही है मछेरे के जाल में

साज़ों को ज़िन्दगी के बिखरना नहीं था यों
कुछ तो हुई थी भूल किसीकी सँभाल में

आहट तो उनकी आयी पर आँखें हुईं न चार
रातें हमारी कट गयीं ऐसे ही हाल में

बँधकर रही न डाल से ख़ुशबू गुलाब की
कोयल न कूकती कभी सुर और ताल में