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"याद तुम्हारी आती है / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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अभिमानी मन का मान डोल उठता है जब ,  
 
अभिमानी मन का मान डोल उठता है जब ,  
 
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !  
 
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !  
*
 
22.
 
यात्रा -
 
पुकार आ रही है !
 
आसार बन रहे हैं एक नई यात्रा के !
 
आहट सुन कसक उठी भीतर से ;
 
हर यात्रा की पूर्व संध्या होता है ऐसा !
 
सीमित आत्म से निकल
 
विराट् में प्रवेश करने का द्वार  -
 
यात्रा !
 
*
 
तैयार हो लूँ !
 
जहाँ  ,जिस तरह रही  ,
 
घेरे से  बाहर निकल आऊँ 
 
सारा ताम-झाम छोड़ !
 
 
बिदा ,प्रिय स्मृतियों ,आशाओं-इच्छाओं ,संबंधों ,
 
स्वीकार लो प्रणाम मेरा ,
 
कि आगे निकल सकूँ,
 
निरी एकाकी ,निरुद्विग्न और निरपेक्ष !
 
 
कि नये दृष्य ,नये अनुभव,
 
मुक्त चेतना में समा सकें ,
 
कि एकदम अनाम अनुभूतियाँ
 
अजाने संवेदन ग्रहण करने को
 
मन के स्तर  खुल जायें !
 
रह जाऊँ एकदम
 
खाली स्लेट,
 
कि होनेवाले अंकन सुस्पष्ट रहें !
 
 
 
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08:57, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

जब पलकें झपका कर नभ में तारे हँसते,
 तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !


जब झूम-झूम उठते फूलों के दल के दल ,
मधुमय वसन्तश्री राग लुटाती आती है
गुन-गुन के गुंजन में वन की डाली-दाली
,सौरभ मधु से मधुपों की प्यास मिटाती है ,
अमराई की डालों से उठती कूक पिकी की आकुलता
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !
 
जब किसी द्वार पर अपनी झोली फैला कर ,
कोई अंधा भिक्षुक जिसका घर-बार नहीं ,
गा उठता कोई करुण मधुर संगीत
कि दाता जो देदे वह होगा अस्वीकार नहीं !
अभिमानी मन का मान डोल उठता है जब ,
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !