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− | जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक | + | जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक. |
− | उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक. | + | |
− | भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग | + | जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक |
− | कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक. | + | उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक. |
− | कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से, | + | |
− | मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक. | + | भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग |
− | धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये | + | कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक. |
− | इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक. | + | |
− | मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया, | + | कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से, |
− | हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक. | + | मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक. |
− | क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध, | + | |
+ | धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये | ||
+ | इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक. | ||
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+ | मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया, | ||
+ | हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक. | ||
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+ | क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध, | ||
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक. | क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक. | ||
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11:24, 21 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक
जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक.
जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक
उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक.
भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग
कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक.
कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से,
मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक.
धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये
इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक.
मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया,
हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक.
क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध,
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक.