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ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी / मोहसिन नक़वी

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ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी
इस दश्त में इक शहर था, वो क्या हुआ, आवारगी

कल शब मुझे बे-शक्ल सी, आवाज़ ने चौँका दिया
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा, आवारगी

इक तू कि सदियों से, मेरे हम-राह भी हम-राज़ भी
इक मैं कि तेरे नाम से ना-आश्ना, आवारगी

ये दर्द की तनहाइयाँ, ये दश्त का वीरां सफ़र
हम लोग तो उकता गये अपनी सुना, आवारगी

इक अजनबी झोंके ने पूछा, मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत मैंने लिखा, आवारगी

ले अब तो दश्त-ए-शब की, सारी वुस'अतें सोने लगीं
अब जागना होगा हमें कब तक बता, आवारगी


कल रात तनहा चाँद को, देखा था मैंने ख़्वाब में
'मोहसिन' मुझे रास आयेगी शायद सदा, आवारगी