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रहस्य जीवन का / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

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जीवन रूपी रहस्य को
मत खोज मानव,
डूब जायेगा
इसकी गहराई में।
तुम से न जाने कितने
डूब गये इसमें पर
न पा सके तल
जीवन रूपी सागर का।
छिपा है मात्र इसमें ढ़ेर
लाचारी का,
अंबार बेबसी का।
नदी है कहीं आँसुओं की,
तो कहीं आग है नफरत की।
चारों ओर बस लाचारी है,
कहीं गरीबी का उफान है
तो कहीं भूख का तूफान है।
नहीं रखा है कुछ भी
खोज में इसकी,
घिर कर इसमें पछतायेगा,
सिर टकरायेगा पर
न पा सकेगा रहस्य
इस जीवन का।