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"रहीम दोहावली - 4" के अवतरणों में अंतर

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मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग।
+
रहिमन आँटा के लगे, बाजत है दिन राति।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग॥301॥
+
घिउ शक्‍कर जे खात हैं, तिनकी कहा बिसाति॥181॥
  
भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग।
+
रहिमन उजली प्रकृत को, नहीं नीच को संग।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग॥302॥
+
करिया बासन कर गहे, कालिख लागत अंग॥182॥
  
बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी।
+
रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि॥303॥
+
वायु जो ऐसी बह गई, वीचन परे पहार॥183॥
  
कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई।
+
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई॥304॥
+
काटे चाटै स्‍वान के, दोऊ भाँति विपरीति॥184॥
  
राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि।
+
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि॥305॥
+
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत॥185॥
  
परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई।
+
रहिमन कबहुँ बड़ेन के, नाहिं गर्व को लेस।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई॥306॥
+
भार धरैं संसार को, तऊ कहावत सेस॥186॥
  
रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात।
+
रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात॥307॥
+
दाँत दिखावत दीन ह्वै, चलत घिसावत नाक॥187॥
  
छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई।
+
रहिमन कहत सुपेट सों, क्‍यों न भयो तू पीठ।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई॥308॥
+
रहते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ॥188॥
नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ।
+
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ॥309॥
+
  
सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय।
+
रहिमन कुटिल कुठार ज्‍यों, करत डारत द्वै टूक।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय॥310॥
+
चतुरन के कसकत रहे, समय चूक की हूक॥189॥
  
मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन।
+
रहिमन को कोउ का करै, ज्‍वारी, चोर, लबार।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन॥311॥
+
जो पति-राखनहार हैं, माखन-चाखनहार॥190॥
  
सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर।
+
रहिमन खोजे ऊख में, जहाँ रसन की खानि।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि॥312॥
+
जहाँ गॉंठ तहँ रस नहीं, यही प्रीति में हानि॥191॥
  
घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई।
+
रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई॥313॥
+
जैसे दीपक तम भखै, कज्‍जल वमन कराय॥192॥
  
बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ।
+
रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ॥314॥
+
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं॥192॥
  
रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि।
+
रहिमन घरिया रहँट की, त्‍यों ओछे की डीठ।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि॥315॥
+
रीतिहि सनमुख होत है, भरी दिखावै पीठ॥194॥
  
निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक।
+
रहिमन चाक कुम्‍हार को, माँगे दिया न देइ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक॥316॥
+
छेद में डंडा डारि कै, चहै नॉंद लै लेइ॥195॥
  
हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर।
+
रहिमन छोटे नरन सो, होत बड़ो नहीं काम।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर॥317॥
+
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम॥196॥
  
गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार।
+
रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार॥318॥
+
प्रीति करै मुख चाटई, बैर करे तन हानि॥197॥
  
बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि।
+
रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि॥319॥
+
जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लेन॥198॥
चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ।
+
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ॥320॥
+
  
सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान।
+
रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान॥321॥
+
ताकी गैल आकाश लौं, क्‍यो न कालिमा होय॥199॥
  
मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर।
+
रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सिय कोय।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर॥322॥
+
पल पल करके लागते, देखु कहाँ धौं होय॥200॥
  
रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग।
+
रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग॥323॥
+
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥201॥
  
नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत।
+
रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती॥324॥
+
बीच उखारी रमसरा, रस काहे ना होय॥202॥
  
जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक।
+
रहिमन जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाँव।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक॥325॥
+
जो बासर को निस कहै, तौ कचपची दिखाव॥203॥
  
बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल।
+
रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल॥326॥
+
गाँठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि॥204॥
  
भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात।
+
रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान सनमान।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात॥327॥
+
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥205॥
  
अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात।
+
रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात॥328॥
+
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि॥ 206॥
  
हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात।
+
रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात॥329॥
+
नैन बान की चोट ते, चोट परे मरि जाय॥207॥
  
गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात।
+
रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुँह स्‍याह।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात॥330॥
+
नहीं छलन को परतिया, नहीं करन को ब्‍याह॥208॥
परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि।
+
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि॥331॥
+
  
और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन।
+
रहिमन दानि दरिद्र तर, तऊ जाँचबे योग।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन॥332॥
+
ज्‍यों सरितन सूखा परे, कुआँ खनावत लोग॥209॥
  
बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।
+
रहिमन दुरदिन के परे, बड़ेन किए घटि काज।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट॥333॥
+
पाँच रूप पांडव भए, रथवाहक नल राज॥210॥
  
कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात।
+
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात॥334॥
+
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥211॥
  
रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग।
+
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग॥335॥
+
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥212॥
  
चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय।
+
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय॥336॥
+
पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम॥213॥
  
मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई।
+
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई॥337॥
+
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥214॥
  
घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि।
+
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि॥338॥
+
बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।1215॥
  
जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस।
+
रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास॥339॥
+
दूध कलारी कर गहे, मद समुझै सब ताहि॥216॥
  
सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल।
+
रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल॥340॥
+
नीर चोरावै संपुटी, मारु सहै घरिआर॥217॥
  
जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन।
+
रहिमन पर उपकार के, करत यारी बीच।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन॥341॥
+
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्‍हों हाड़ दधीच॥218॥
बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू ताहि।
+
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि॥342॥
+
  
पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान।
+
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान॥343॥
+
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥219॥
  
कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर।
+
रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर॥344॥
+
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फाँकें तीन॥220॥
  
कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ।
+
रहिमन पेटे सों कहत, क्‍यों न भये तुम पीठि।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ॥345॥
+
भूखे मान बिगारहु, भरे बिगारहु दीठि॥221॥
  
बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई।
+
रहिमन पैंड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई॥346॥
+
बिछलत पाँव पिपीलिका, लोग लदावत बैल॥222॥
  
निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात।
+
रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात॥347॥
+
ज्‍यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥223॥
  
सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक।
+
रहिमन ब्‍याह बिआधि है, सकहु तो जाहु बचाय।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक॥348॥
+
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय॥224॥
  
नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय।
+
रहिमन बहु भेषज करत, ब्‍याधि न छाँड़त साथ।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय॥349॥
+
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ॥225॥
  
बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस।
+
रहिमन बात अगम्‍य की, कहन सुनन को नाहिं।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस॥350॥
+
जे जानत ते कहत नाहिं, कहत ते जानत नाहिं॥226॥
  
लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल।
+
रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल॥351॥
+
हरि बाढ़े आकाश लौं, तऊ बावनै नाम॥227॥
  
कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग।
+
रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग॥352॥
+
बड़े बड़े समरथ भए, तौ न कोउ मरि जात॥228॥
काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ।
+
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ॥353॥
+
  
बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह।
+
रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह॥354॥
+
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय॥229॥
  
नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ।
+
रहिमन मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ॥355॥
+
जो डिगिहै तो फिर कहूँ, नहिं धरने को पाँव॥230॥
  
बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय।
+
रहिमन माँगत बड़ेन की, लघुता होत अनूप।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय॥356॥
+
बलि मख माँगत को गए, धरि बावन को रूप॥231॥
  
प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान।
+
रहिमन यहि न सराहिये, लैन दैन कै प्रीति।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान॥357॥
+
प्रानहिं बाजी राखिये, हारि होय कै जीति॥232॥
  
अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर।
+
रहिमन यहि संसार में, सब सौं मिलिये धाइ।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर॥358॥
+
ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ॥233॥
  
कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप।
+
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप॥359॥
+
नारायन हू को भयो, बावन आँगुर गात॥234॥
  
लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान।
+
रहिमन या तन सूप है, लीजै जगत पछोर।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान॥360॥
+
हलुकन को उड़ि जान दै, गरुए राखि बटोर॥235॥
  
मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन।
+
रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन॥361॥
+
ज्‍यों बड़री अँखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत॥236॥
  
मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई।
+
रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई॥362॥
+
खरो दिवस किहि काम को रहिबो आपुहि आप॥237॥
  
विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन।
+
रहिमन रहिबो वा भलो, जो लौं सील समूच।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन॥363॥
+
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच॥238॥
अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त।
+
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त॥364॥
+
  
धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि।
+
रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग॥365॥
+
परसत मन मैलो करे, सो मैदा जरि जाय॥239॥
  
चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ।
+
रहिमन राज सराहिए, ससिसम सूखद जो होय।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ॥366॥
+
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय॥240॥
 
+
रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह।
+
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह॥367॥
+
 
+
बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक।
+
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक॥368॥
+
 
+
नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल।
+
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल॥369॥
+
 
+
बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन।
+
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन॥370॥
+
 
+
धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति।
+
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति॥371॥
+
 
+
मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास।
+
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास॥372॥
+
 
+
थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव।
+
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव॥373॥
+
 
+
पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात।
+
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात॥374॥
+
जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।
+
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥375॥
+
 
+
ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
+
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥376॥
+
 
+
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै।
+
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥377॥
+
 
+
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।
+
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥378॥
+
 
+
बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं।
+
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥379॥
+
 
+
अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ।
+
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ॥
+
रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।
+
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै॥380॥
+
 
+
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
+
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥381॥
+
 
+
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै।
+
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै॥382॥
+
 
+
रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में।
+
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं॥383॥
+
 
+
चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।
+
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥384॥
+
 
+
घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान।
+
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान॥385॥
+
 
+
बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस।
+
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस॥386॥
+
 
+
सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार।
+
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार॥387॥
+
 
+
भजहु चराचर-नायक सूरज देव।
+
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव॥388॥
+
 
+
ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस।
+
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस॥389॥
+
 
+
ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर।
+
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर॥390॥
+
 
+
पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात।
+
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात॥391॥
+
 
+
करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर।
+
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर॥392॥
+
 
+
बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार।
+
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर॥393॥
+
 
+
अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम।
+
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम॥394॥
+
 
+
कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर।
+
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर॥395॥
+
 
+
घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज।
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पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज॥396॥
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पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात।
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अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान॥397॥
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मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय।
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तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय॥398॥
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बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव।
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मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव॥399॥
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मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय।
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गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय॥400॥
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13:21, 11 जून 2015 के समय का अवतरण

रहिमन आँटा के लगे, बाजत है दिन राति।
घिउ शक्‍कर जे खात हैं, तिनकी कहा बिसाति॥181॥

रहिमन उजली प्रकृत को, नहीं नीच को संग।
करिया बासन कर गहे, कालिख लागत अंग॥182॥

रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।
वायु जो ऐसी बह गई, वीचन परे पहार॥183॥

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति।
काटे चाटै स्‍वान के, दोऊ भाँति विपरीति॥184॥

रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत॥185॥

रहिमन कबहुँ बड़ेन के, नाहिं गर्व को लेस।
भार धरैं संसार को, तऊ कहावत सेस॥186॥

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक।
दाँत दिखावत दीन ह्वै, चलत घिसावत नाक॥187॥

रहिमन कहत सुपेट सों, क्‍यों न भयो तू पीठ।
रहते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ॥188॥

रहिमन कुटिल कुठार ज्‍यों, करत डारत द्वै टूक।
चतुरन के कसकत रहे, समय चूक की हूक॥189॥

रहिमन को कोउ का करै, ज्‍वारी, चोर, लबार।
जो पति-राखनहार हैं, माखन-चाखनहार॥190॥

रहिमन खोजे ऊख में, जहाँ रसन की खानि।
जहाँ गॉंठ तहँ रस नहीं, यही प्रीति में हानि॥191॥

रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय।
जैसे दीपक तम भखै, कज्‍जल वमन कराय॥192॥

रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं।
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं॥192॥

रहिमन घरिया रहँट की, त्‍यों ओछे की डीठ।
रीतिहि सनमुख होत है, भरी दिखावै पीठ॥194॥

रहिमन चाक कुम्‍हार को, माँगे दिया न देइ।
छेद में डंडा डारि कै, चहै नॉंद लै लेइ॥195॥

रहिमन छोटे नरन सो, होत बड़ो नहीं काम।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम॥196॥

रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि।
प्रीति करै मुख चाटई, बैर करे तन हानि॥197॥

रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन।
जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लेन॥198॥

रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय।
ताकी गैल आकाश लौं, क्‍यो न कालिमा होय॥199॥

रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सिय कोय।
पल पल करके लागते, देखु कहाँ धौं होय॥200॥

रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥201॥

रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रमसरा, रस काहे ना होय॥202॥

रहिमन जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाँव।
जो बासर को निस कहै, तौ कचपची दिखाव॥203॥

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गाँठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि॥204॥

रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान सनमान।
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥205॥

रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि॥ 206॥

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय।
नैन बान की चोट ते, चोट परे मरि जाय॥207॥

रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुँह स्‍याह।
नहीं छलन को परतिया, नहीं करन को ब्‍याह॥208॥

रहिमन दानि दरिद्र तर, तऊ जाँचबे योग।
ज्‍यों सरितन सूखा परे, कुआँ खनावत लोग॥209॥

रहिमन दुरदिन के परे, बड़ेन किए घटि काज।
पाँच रूप पांडव भए, रथवाहक नल राज॥210॥

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥211॥

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥212॥

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम।
पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम॥213॥

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥214॥

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।1215॥

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
दूध कलारी कर गहे, मद समुझै सब ताहि॥216॥

रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
नीर चोरावै संपुटी, मारु सहै घरिआर॥217॥

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्‍हों हाड़ दधीच॥218॥

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥219॥

रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फाँकें तीन॥220॥

रहिमन पेटे सों कहत, क्‍यों न भये तुम पीठि।
भूखे मान बिगारहु, भरे बिगारहु दीठि॥221॥

रहिमन पैंड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
बिछलत पाँव पिपीलिका, लोग लदावत बैल॥222॥

रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून।
ज्‍यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥223॥

रहिमन ब्‍याह बिआधि है, सकहु तो जाहु बचाय।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय॥224॥

रहिमन बहु भेषज करत, ब्‍याधि न छाँड़त साथ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ॥225॥

रहिमन बात अगम्‍य की, कहन सुनन को नाहिं।
जे जानत ते कहत नाहिं, कहत ते जानत नाहिं॥226॥

रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम।
हरि बाढ़े आकाश लौं, तऊ बावनै नाम॥227॥

रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात।
बड़े बड़े समरथ भए, तौ न कोउ मरि जात॥228॥

रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय॥229॥

रहिमन मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव।
जो डिगिहै तो फिर कहूँ, नहिं धरने को पाँव॥230॥

रहिमन माँगत बड़ेन की, लघुता होत अनूप।
बलि मख माँगत को गए, धरि बावन को रूप॥231॥

रहिमन यहि न सराहिये, लैन दैन कै प्रीति।
प्रानहिं बाजी राखिये, हारि होय कै जीति॥232॥

रहिमन यहि संसार में, सब सौं मिलिये धाइ।
ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ॥233॥

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात।
नारायन हू को भयो, बावन आँगुर गात॥234॥

रहिमन या तन सूप है, लीजै जगत पछोर।
हलुकन को उड़ि जान दै, गरुए राखि बटोर॥235॥

रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।
ज्‍यों बड़री अँखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत॥236॥

रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप।
खरो दिवस किहि काम को रहिबो आपुहि आप॥237॥

रहिमन रहिबो वा भलो, जो लौं सील समूच।
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच॥238॥

रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय।
परसत मन मैलो करे, सो मैदा जरि जाय॥239॥

रहिमन राज सराहिए, ससिसम सूखद जो होय।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय॥240॥