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रहीम दोहावली - 4

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मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग॥301॥

भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग॥302॥

बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि॥303॥

कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई॥304॥

राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि॥305॥

परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई॥306॥

रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात॥307॥

छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई॥308॥
नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ॥309॥

सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय॥310॥

मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन॥311॥

सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि॥312॥

घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई॥313॥

बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ॥314॥

रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि॥315॥

निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक॥316॥

हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर॥317॥

गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार॥318॥

बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि॥319॥
चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ॥320॥

सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान॥321॥

मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर॥322॥

रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग॥323॥

नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती॥324॥

जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक॥325॥

बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल॥326॥

भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात॥327॥

अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात॥328॥

हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात॥329॥

गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात॥330॥
परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि।
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि॥331॥

और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन॥332॥

बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट॥333॥

कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात॥334॥

रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग॥335॥

चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय॥336॥

मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई॥337॥

घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि॥338॥

जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास॥339॥

सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल॥340॥

जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन॥341॥
बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि।
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि॥342॥

पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान॥343॥

कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर॥344॥

कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ॥345॥

बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई॥346॥

निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात॥347॥

सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक॥348॥

नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय॥349॥

बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस॥350॥

लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल॥351॥

कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग॥352॥
काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ।
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ॥353॥

बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह॥354॥

नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ॥355॥

बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय॥356॥

प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान॥357॥

अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर॥358॥

कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप॥359॥

लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान॥360॥

मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन॥361॥

मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई॥362॥

विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन॥363॥
अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त।
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त॥364॥

धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग॥365॥

चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ॥366॥

रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह॥367॥

बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक॥368॥

नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल।
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल॥369॥

बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन।
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन॥370॥

धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति॥371॥

मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास।
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास॥372॥

थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव।
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव॥373॥

पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात।
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात॥374॥
जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥375॥

ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥376॥

रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥377॥

रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥378॥

बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥379॥

अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ।
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ॥
रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै॥380॥

रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥381॥

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै।
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै॥382॥

रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं॥383॥

चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥384॥

घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान।
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान॥385॥

बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस।
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस॥386॥

सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार।
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार॥387॥

भजहु चराचर-नायक सूरज देव।
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव॥388॥

ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस।
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस॥389॥

ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर।
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर॥390॥

पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात।
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात॥391॥

करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर।
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर॥392॥

बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार।
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर॥393॥

अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम।
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम॥394॥

कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर।
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर॥395॥

घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज॥396॥

पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात।
अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान॥397॥

मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय॥398॥

बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव।
मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव॥399॥

मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय।
गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय॥400॥