भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
|संग्रह=सामधेनी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
}}
 +
{{KKAnthologyChand}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
 +
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
 +
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
 +
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
 +
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
 +
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
 +
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 
  
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,<br>
+
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!<br>
+
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,<br>
+
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।<br><br>
+
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
  
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?<br>
+
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते<br>
+
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?  
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी<br>
+
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।<br><br>
+
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
  
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का<br>
+
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आज उठता और कल फिर फूट जाता है<br>
+
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,  
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?<br>
+
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,  
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।<br><br>
+
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ। 
  
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,<br>
+
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?<br>
+
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?<br>
+
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?<br><br>
+
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। 
  
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,<br>
+
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,<br>
+
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,  
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,<br>
+
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,  
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।<br><br>
+
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।" 
  
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी<br>
+
'''रचनाकाल: १९४६'''
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,<br>
+
</poem>
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,<br>
+
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।<br><br>
+
 
+
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-<br>
+
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,<br>
+
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,<br>
+
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।<br><br>
+

23:21, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"

रचनाकाल: १९४६