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"राम से, कृष्ण से, बुद्ध से, बापुओं की शरण पा गए / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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मूँद कर आँख चलते रहे, हम कहाँ से कहाँ आ गए। | मूँद कर आँख चलते रहे, हम कहाँ से कहाँ आ गए। | ||
मुश्किलों में जिए थे मगर, दूसरों को भी जीने दिया, | मुश्किलों में जिए थे मगर, दूसरों को भी जीने दिया, | ||
− | फिर | + | फिर न जाने हमें क्या हुआ, जो मिला मारकर खा गए। |
− | चोर डाकू ही भाये हमें, देश हमने भी | + | चोर-डाकू ही भाये हमें, देश हमने भी सौंपा उन्हें, |
− | हर सितम चुप हो सहते रहे, हम भी | + | हर सितम चुप हो सहते रहे, हम भी आख़िर उन्हें भा गए। |
उम्र भर धूप सहते रहे, बन सके मेघ फिर भी न हम, | उम्र भर धूप सहते रहे, बन सके मेघ फिर भी न हम, | ||
− | अंत में | + | अंत में बन के काला धुआँ, खुद की साँसों पे हम छा गए। |
− | सुन समाचार कुढ़ते रहे, | + | सुन समाचार कुढ़ते रहे, ज़िंदगी भर किया कुछ नहीं, |
− | अब | + | अब करें तब करें सोचते, अंत में हम भी मुँह बा, गए। |
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12:55, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
बुद्ध से, राम से, कृष्ण से, बापुओं की शरण पा गए।
मूँद कर आँख चलते रहे, हम कहाँ से कहाँ आ गए।
मुश्किलों में जिए थे मगर, दूसरों को भी जीने दिया,
फिर न जाने हमें क्या हुआ, जो मिला मारकर खा गए।
चोर-डाकू ही भाये हमें, देश हमने भी सौंपा उन्हें,
हर सितम चुप हो सहते रहे, हम भी आख़िर उन्हें भा गए।
उम्र भर धूप सहते रहे, बन सके मेघ फिर भी न हम,
अंत में बन के काला धुआँ, खुद की साँसों पे हम छा गए।
सुन समाचार कुढ़ते रहे, ज़िंदगी भर किया कुछ नहीं,
अब करें तब करें सोचते, अंत में हम भी मुँह बा, गए।