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राही से / प्रभाकर माचवे

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कवि: प्रभाकर माचवे

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इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना भैया !
याँ हार बन गया अदना दाना, भैया ।

है पता न कितनी और दूर है मंज़िल

हम ने तो जाना केवल जाना भैया !

तकरार न करना जाना है एकाकी
हमराह बचेगा कौन भला अब बाकी

जब सम्बल भी सब एक-एक कर छुटता

बस बची एक झाँकी उन नक्शे-पा की ।

छुट चले राह में नये-पुराने साथी
मिट गयी मार्गदर्शक यह कम्पित बाती

नंगी प्रकृति वीरान भयावह आगे

मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती !