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रिश्ता / लीलाधर मंडलोई

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उसके पास एक टुटही टीन पेटी थी
जिसमें था हमारे अचरज का जगत
वह लिानागा बिलानागा तीन दिन हमारे घर होता
काम हो न हो उसकी आमद अचूक थी
हम निहन्‍नी को हाथ में लेते और
घुमाते अंगुलियों के बीच
उसके नीचे की तरफ तरफ़ एक उठावदार कोना थाभीतर की तरफ तरफ़ घूमा हुआजिससे साफ साफ़ होता था कान का मैल
कक्‍का बड़े जतन से उपयोग में लाते
एक गुदगुदी जो बसी है अब तक कानों में
वाह क्‍या खूब
तब नियम सख्‍त सख़्त थाया कहें रिवाज रिवाज़ न था
लेकिन स्त्रि‍यां चोरी-छिपे
नाखून कटाने की जुगत में होतीं