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रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब,
सोई अब आँस ह्वै उबरि गिरिबौ करैं ।
कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखैं जिन्हें,
याद किएँ तिनकौं अँवां सौं घिरिबौ करैं ॥
दिननि के फेर सौं भयो है हेर-फेर ऐसौ,
जाकौं हेरि-फेरि हेरिबौई हिरिबौ करैं ।
फिरति हुते हु जिन कुंजन में आठौं जाम,
नैननि मैं अब सोई कुंज फिरिबौ करैं ॥7॥