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लहरें / सरस दरबारी

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समंदर के किनारे बैठे
कभी लहरों को गौर से देखा है
एक दूसरे से होड़ लगाते हुए
हर लहर तेज़ी से बढ़कर
कोई छोर छूने की पुरजोर कोशिश करती
फेनिल सपनों के निशाँ छोड़-
लौट आती-
और आती हुई लहर दूने जोश से
उसे काटती हुई आगे बढ़ जाती
लेकिन यथा शक्ति प्रयत्न के बाद
वह भी थककर लौट आती
बिलकुल हमारी बहस की तरह!
 (२)
कभी शोर सुना है लहरों का
दो छोटी छोटी लहरें-
हाथों में हाथ डाले-
ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की
कोशिश करती हैं-
गरजती हुई बड़ी लहरें
उनका पीछा करती हुई
दौड़ी आती हैं-
और उन्हें नेस्तनाबूत कर
लौट जाती हैं-
बस किनारे पर रह जाते हैं-
सपने-
ख्वाईशें-
और जिद्द-
साथ रहने की
फेन की शक्ल में!
(३ )
लहरों को मान मुनव्वल करते देखा है कभी!
एक लहर जैसे ही रूठकर आगे बढ़ती है
वैसे ही दूसरी लहर
दौड़ी दौड़ी
उसे मनाने पहुँच जाती है
फिर दोनों ही मुस्कुराकर-
अपनी फेनिल ख़ुशी
किनारे पर छोड़ते हुए
साथ लौट आते हैं
दो प्रेमियों की तरह!
 ( ४ )
कभी कभी लहरें-
अल्हड़ युवतियों सी
एक स्वछन्द वातावरण में
विचरने निकल पड़तीं हैं---
घर से दूर-
एल अनजान छोर पर!
तभी बड़ी लहरें
माता पिता की चिंताएं-
पुकारती हुई
बढ़ती आती हैं
देखना बच्चों संभलकर
यह दुनिया बहुत बुरी है
कहीं खो न जाना
अपना ख़याल रखना-
लगभग चीखती हुई सी
वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है
लेकिन तब तक-
किनारे की रेत-
सोख चुकी होती है उन्हें-
बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष
यादें बन
  आँसू बन
तथाकथित कलंक बन!