भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ला प्रलय देती नदी की पीर है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:27, 18 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ला प्रलय देती नदी की पीर है।
बाँध का जब टूट जाता धीर है।

रोग सच्चे प्रेम का तुझको लगा,
बे-दवा मरना तेरी तकदीर है।

देश बेआवाज़ बँटता जा रहा,
बंदरों के हाथ में शमशीर है।

घाव दिल के वक्त भर देता मगर,
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है।

कब तलक फ़ैशन बताओगे इसे,
पाँव में जो लोक के जंजीर है।

फ़्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है।