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लिखूँगा तो रेतों पर ही / रवीन्द्र दास

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लिखूंगा तो रेतों पर ही

चाहे वह मिट जाए पल में

आज अगर मैं जी न सका तो

क्या रखा?

अनदेखे कल में।

तुम हँसते हो या रोता मैं

अपना अपना हँसना रोना

समय गुजरता

साथ सभी ले

तुम्हे याद हो- साथ पढ़ी थी

लिखी हवा पे

कोई इबारत

चला गया था धीर समीरे

याद कई दिन तक आया था

कई तर्क रचकर बैठे थे

जीवन की खुशियाँ थी मन में

तर्क आज जब तुम करते हो

मेरे इस असफल जीवन के

पाते हो कुछ नए ठिकाने

जो न कहीं दर्ज मिला था

मेरे जीवन की पोथी में

लिखूं रेत पर

कोई पढ़े तो वह शाश्वत सा हो जाएगा

वर्ना कई सुनहरे अक्षर

अंधेरों में है, गुमसुम है......

मैं तो निर्जन रेतों पर ही

अपना सब पैगाम लिखूंगा

मिट जाए या रच-बस जाए

नीचे अपना नाम लिखूंगा

लिखूंगा तो रेतों पर ही।