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विलावल / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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5.

हेँ विरले संसार मेँ हरि-रस मतवारे। टेक।
सब जीवनते अवलता, बिनु स्वाद विचारे॥
कोउ माते धन संपदा, कोउ हंस हँसारे। कोउ विद्या रस वशभये, कोउ यौवन झारे॥
कोउ 2 दान विधानते, कोउ नेम अचारे। कोउ परि कामके धामँ, लोटै सविकारे॥
कोउ तपतरिथ ही रते, कोउ चाटक चारे। कोउ नाचै तन तोरिके, भ्रम भेष सँवारे॥
बहुत बहुत विश्वासते, बहै पचि हारे। कह धरनी सत-गुरू बिना, कलि कोइ न तारे॥1॥

6.

राम-दया तब जानिये, इतना जब पावै। टेक।
ता घट नट परगट भयो, पट सहज बजावै॥
सत-गुरु-मारग पगुधरे, मनअरध चढ़ावै। मगन रहै सूरति-सना, अनुभव-पद भावै॥
संतोषी शीतल दया, मुख झूठ न आवै। निडर फिरै राजाप्रजा, दुविधा न जनावै॥
प्रेम अमलि मातो रहे, इन्द्री न जगावै। ऐसाहिँ दर्शन-कारने, धरनीजन धावै॥2॥

7.

राम बसै घट-भीतरै, भूलै मति कोई। टेक। वाद हजार प्रकार में, अरुझे नर लोई॥
जब कपि को जाड़ो लगै, गुंजा वटुरावै। तंतु लगावै ताहिसाँ, वहि जाहु न जावै॥
हंस पियासो जो रहै, जल औ न भावै। मान सरोवर ध्यानते, तन तृषा बुझावै॥
जब अंडा बाहर धरे, कमठी जल धावै। सुरत-सनेही ताहिको, आपै चलि आवै॥
जो गुरु तत्व लखवई, चेला चितलावै। सहज कृपाकरि हरिमिले, धरनी जन गावै॥3॥

8.

अब मान्यो मन आपनो, सबही सच पायो। टेक। पाँचतुते पाँचो दिशा, एक भवन वनायो॥
इन्द्रिय चाहति प्रतिदिना, अति सुन्दरि नारी। था कि परी भई थोथरी, बलहीना बैचारी॥
जिह्वा करति जोरावरी, बलकै बहु बानी। बैठि रही पर ओट दे, सहजै सकुचानी॥
विविध विषय-रस वासना, वश व्याकुल नासा। सो विषया विषसी लगै, सूँघै नहि नासा॥
नयनहि चैन परै नहीं, वन फिरत भुलाने। सो नयना परवस परे, बरबस ललचाने॥
श्वासन समान श्रवन हुते बहुते गृह जाँही। दया परे सतकर्मके, कहुँ डोलत नाँही॥
जोको तन मन तिन लियो, शंसय उठि भागी। धरनी जग-धंधा छुटी प्रभोसोँ लौ लागी॥

9.

राम-भजन कौतुक नहीं, सुरतैते होई। टेक। कूर कुबुद्धी कादरा, कर सकेँ न कोई॥
दिन दास ओदर के भरे, उठि राम रटोई। चित खोटा टोटा भयो, फिरि पंथ बिगोई॥
देखा देखी जोरिके, पद साखि कथोई। जो मुख कहै करै नहीं, कपटी कलि सोई॥
भेस चिकन पट जो कियो, पट कपट न धोई। अभि-अंतर मन धन बसै, किमि कर्म कटोई॥
माया मोह विसारिया, ममता मद खोई। धरनी सो निरमल भया, कलि-बंधन छोई॥5॥

10.

मेरे तो रामको नाम है, माँगहुं सो पैवा। टेक। कौड़ी गांठि न बांधिये, ना बरद लदैबा।
राति बियारी पाइये, दिन देत कलेवा। देहहिँ छाजन देत है, सहजै सहजेबा॥
जासु भरोसे छोड़िया, सब देई देवा। धरनी विषय विसारिके, धर संतन सेवा॥
सरधा होइ तबले कछू, दिन जात चलेवा। धरनी और कहा कहै, मति होहु बहेबा॥6॥

11.

ज्ञान सकल संसार मेँ, साधू-सेवकाई। टेक । कोऊ तो कैसहु कहै, मोहि निश्चय आई॥
साधु हमारो भूल है, गुरु साधु सहाई। मातृ पिता पुनि साधु है, साधूजन भाई॥
साधु अछय धन संपदा, कबहीं न खुटाई। साधुन-संगति पाइये, सुख स्वाद बड़ाई॥
साधु हमारे ओढ़ना, अरु साधु बिछाई। साधु हमारे बालका, संबन्ध सगाई॥
साधुकि वानी साँच है, साधू पतियाई। धरनी मन वच कर्मना, करि साधु दोहाई॥7॥

12.

गुरु देवी गुरु देवता मेरो मन माना। टेक । कोटि कला जो कोउ करै मेरो मन माना॥
अरध उरध अभि-अंतर जँह अजपा जाप। तँह मन पवन प्रवेशना, जँह पुन्य न पाप॥
तिरवेनी-संगम जहाँ, मुनि-मानस लोभा। दसयँ द्वारे देखिया, कहि जात न शोभा॥
मूल-मंत्र को मूल है, बिनु मूल विराजा। पाँच प्रधान तहाँ बसँ, अविचल एक राजा॥
धनि जीवन जग ताहिको, जो अधर अधारी। धरनी मन वच कर्मना, चरनन वलिहारी॥8॥

13.

मोर कछू ना वस चले, कोऊ कैसो कहि जाय। टेक। झांकि झरोखे रावला, मन-मोहन रूपरेखाय।
दृष्टि परे परवश परो, घर घरहु मोहि सोहाय। जव जलचर जलमँ चरे, मुख चो सहज समाय॥
निगलत गर काँटो गड़े, औ उगलत उगलि न जाय। जब पंछी वन बैठिवो, अपने तन-मन ठहराय॥
नरको भेद न भेँटिया, पै औचक लागे आय।...
जाहि परो दुखियापनो, सोई जानै परिपीर। धरनी कहत सुन्यो नहीं, कहुँ बाझिन-छाती छीर॥9॥

14.

तू परि राखु पितम्बरा, प्रभु तो सम और न कोय। टेक।
सब बन्धन के वार है, एक तू बंधन के पार। तीन लोक ओदर धरे, कछु तोहि न व्यापै भार॥
बाहर है मूरति घनी, तँह मोमन नहि ठहराय। भावत भौनहिँ भीतरे, जँह धवल ध्वजा फहराय॥
ताके मातु पिता नहीं, नहि नारि सुता सुत भाइ। देहधरे विनशे सबै, तू युग युग नहि विनशाइ॥
धरनी जन जाने नहीं, सब संत कहयो सतिभाव। मोहि भरोसो ताहिको, जाको वेद विमल यशगाव॥