भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैधव्य और वसंत / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:08, 1 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=अक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झुलसे वन सा फैला जीवन
बढ़ते आकाश विवशता के।
वासंती रंग नहीं होते
बंदी मन के परवशता के।

पहले तो खाली क्षितिजों में
सिंदूर भरा, फिर पोंछ दिया।
फिर सूखे पत्तों का मौसम
सूने वर्षों का बोझ दिया।

आगे दे दी वीरान उमर
पीछे अतीत बेजान दिया।
मैं छाया की पहचान बनी
परछाई का सम्मान किया।

पथ होता पैरों के आगे
मैं काँटों पर चलकर आती।
सांसों की सरहद के आगे
पर कोई उमर नहीं जाती।

तुम वापस आ पाते तो मैं
हर ओर हवा बन कर आती।
मैं नभ तक आँचल फैलाती,
हरियाली बनकर बिछ जाती।

कैसी रांगोली हाथों पर
कैसी बयार, कैसी केसर।
हमने तो जलते देखा है
हर मौसम में फूलों का घर।

मुरझाये बरस कई बीते
अब तो मुरझे फूलों के संग।
कितने बसंत ढोना होगा
यह बोझिल एकाकीपन?