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वो सख़ी है तो किसी रोज़ बुला कर ले जाए / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
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वो सख़ी है तो किसी रोज़ बुला कर ले जाए
और मुझे वस्ल के आदाब सिखा कर ले जाए
मेरे अंदर किसी अफ़सोस की तारीकी है
इस अँधेरे में कोई आग जला कर ले जाए
ये मेरी रूह में नद्दी की थकन कैसी है
वो समंदर की तरह आए बहा कर ले जाए
हिज्र में जिस्म के असरार कहाँ खुलते हैं
अब वही सहर करे प्यार से आ कर ले जाए
ख़ाक आँखों में है वो ख़्वाब कहाँ मिलता है
जो मुझे क़ैद-ए-मनाज़िर से रिहा कर ले जाए