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व्याल-विजय / रामधारी सिंह "दिनकर"

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झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

यह बांसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में ,
यह बांसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में
अस्तित्वों के अनस्तित्व में,महाशांति के तल में ,
यह बांसुरी बजी शून्यासन की समाधि निश्चल में .

कम्पहीन तेरे समुद्र में जीवन-लहर उठाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

अक्षयवट पर बजी बाँसुरी ,गगन मगन लहराया
दल पर विधि को लिए जलधि में नाभि-कमल उग आया
जन्मी नव चेतना, सिहरने लगे तत्व चल-दल से ,
स्वर का ले अवलम्ब भूमि निकली प्लावन के जल से .

अपने आर्द्र वसन की वसुधा को फिर याद दिलाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

फूली सृष्टि नाद-बंधन पर, अब तक फूल रही है,
वंशी के स्वर के धागे में धरती झूल रही है .
आदि-छोर पर जो स्वर फूँका,दौड़ा अंत तलक है,
तार-तार में गूँज गीत की,कण-कण-बीच झलक है .

आलापों पर उठा जगत को भर-भर पेंग झूलाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

जगमग ओस-बिंदु गुंथ जाते सांसो के तारों में ,
गीत बदल जाते अनजाने मोती के हारों में .
जब-जब उठता नाद मेघ,मंडलाकार घिरते हैं ,
आस-पास वंशी के गीले इंद्रधनुष तिरते है .

बाँधू मेघ कहाँ सुरधनु पर ?सुरधनु कहाँ सजाऊँ?
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

उड़े नाद के जो कण ऊपर वे बन गए सितारे ,
नीचे जो रह गए, कहीं है फूल, कहीं अंगारे .
भीगे अधर कभी वंशी के शीतल गंगा जल से ,
कभी प्राण तक झुलस उठे हैं इसके हालाहल से .

शीतलता पीकर प्रदाह से कैसे ह्रदय चुराऊँ ?
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

इस वंशी के मधुर तन पर माया डोल चुकी है
पटावरण कर दूर भेद अंतर का खोल चुकी है .
झूम चुकी है प्रकृति चांदनी में मादक गानों पर ,
नचा चुका है महानर्तकी को इसकी तानों पर .

विषवर्षी पर अमृतवर्षिणी का जादू आजमाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

यह बाँसुरी बजी, मधु के सोते फूटे मधुबन में,
यह बाँसुरी बजी, हरियाली दौड गई कानन में .
यह बाँसुरी बजी, प्रत्यागत हुए विहंग गगन से,
यह बाँसुरी बजी, सरका विधु चरने लगा गगन से .

अमृत सरोवर में धो-धो तेरा भी जहर बहाऊँ .
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

यह बाँसुरी बजी, पनघट पर कालिंदी के तट में,
यह बाँसुरी बजी, मुरदों के आसन पर मरघट में .
बजी निशा के बीच आलुलायित केशों के तम में,
बजी सूर्य के साथ यही बाँसुरी रक्त-कर्दम में .

कालिय दह में मिले हुए विष को पीयूष बनाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

फूँक-फूँक विष लपट, उगल जितना हों जहर ह्रदय में,
वंशी यह निर्गरल बजेगी सदा शांति की लय में .
पहचाने किस तरह भला तू निज विष का मतवाला ?
मैं हूँ साँपों की पीठों पर कुसुम लादने वाला .

विष दह से चल निकल फूल से तेरा अंग सजाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

ओ शंका के व्याल ! देख मत मेरे श्याम वदन को,
चक्षुःश्रवा ! श्रवण कर वंशी के भीतर के स्वर को .
जिसने दिया तुझको विष उसने मुझको गान दिया है,
ईर्ष्या तुझे, उसी ने मुझको भी अभिमान दिया है.

इस आशीष के लिए भाग्य पर क्यों न अधिक इतराऊँ?
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .

विषधारी ! मत डोल, कि मेरा आसन बहुत कड़ा है,
कृष्ण आज लघुता में भी साँपों से बहुत बड़ा है .
आया हूँ बाँसुरी-बीच उद्धार लिए जन-गण का ,
फण पर तेरे खड़ा हुआ हूँ भार लिए त्रिभुवन का .

बढ़ा, बढ़ा नासिका रंध्र में मुक्ति-सूत्र पहनाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ .