भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
शऊरे जात ने ये रस्म भी निबाही थी
उसी को क़त्ल किया जिसने खैर ख़ैर चाही थी
तुम्हीं बताओ मैं अपने हक़ में क्या कहता
मेरे खिलाफ़ भरे शहर की गवाही थी
कई चरागनिहाँ थे चराग चराग़ के पीछे
जिसे निगाह समझते हो कमनिगाही थी
तेरी ज़न्नत से निकाला हुआ इन्सान हूँ मैं
मेर ऐजाज़ अज़ल ही से खताकारी ख़ताकारी है
दो बलायें मेरी आँखों का मुकद्दर ‘शहजाद’
एक तो नींद है और दूसरे बेदारी है
</poem>