शकुन्तला / अध्याय 3 / भाग 1 / दामोदर लालदास
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से शकुन्तला कण्वाश्रममे आइलि कण्वक द्वारा।
जतय ‘गोतमी’ पालन-पोषण कयलनि करुणागारा।।
नित नव शुक्लपक्ष-चन्द्रक सन अंग-क्रान्ति बढि़ गेले।
कण्व-कुटी-शोभा-सुन्दरता नित-नित नव-नव भेले।।
किछु दिन पुण्य-तपोवन-रजसँ धूरामाटि खेलयली।
देखितहिं-देखितहिं नव लतिकावलि जकाँ वेश बढि़ अयली।।
भेल तनिक अनुरूप न सुन्दर राजोद्यानक मल्ली।
लज्जित छलि अवलोकि तनिक छवि-नन्दन-विपिनक वल्ली।।
तनिकर रूप-रंग-सौरभसँ तपवन सुरभित भेले।
सखिगण-सँग करथि कत नव-नव मोद-विवर्द्धक-खेले।।
कोखन शुक-सारिका पढ़ाबधि नचबथि खनहुँ मयूरे।
खनहुँ ठाढि़ भय सुनथि विटप-तर वृन्द-विहंगम-सूरे।।
कौखन जल भरि भरि घट आनथि जाय मालिनी-तीरे।
रोपल लतावलीकें, जा’ जा’ विहंसि पटाबथि नीरे।।
कोखन बैसि हरिण-मण्डलिमे भोजन देंथि सप्रीती।
वीणा-नाद विनिन्दक गाबथि खनहुँ मनोहर गीती।
दुखित देखि मृगगणकें कौखन करथि उचित उपचारे।
सेवामे रत रहथि अनुक्षण भेलि दुखित विस्तारे।।
हिंसक पशुपर्यन्त रहै छल अनुखन प्रेम विभोरे।
देखि कतहु कुदि छरपि चरणपर खेल करय नहि थोड़े।।
अस्तु, असीम नभोमण्डल सन बढ़ल तनिक अनुरागे।
राखि सभक कल्याण-लालसा धन्य बुझथि निज भागे।।
सभकें से प्रेमार्द रखैछलि मधुर स्वभावक द्वारा।
फलतः तनिक शुद्ध व्यवहारें के न प्रसन्न अपारा?
बुद्धि-तीक्ष्णता तनिक तेहन छल अध्ययनहुँ में भारी।
जनु, जिह्वे पर स्वयम् शारदा बैसलि आसन-धारी।।
अल्पकालमे सिखल विविध विद्या से रूपक खानी।
स्वर्ण-सुगन्धि-समेत’ भेल चरितार्थ ततहि जन वाणी।।
बैसि जखन से मधुर रागसँ मधुभाषिणी सुशीला।
पुज्य देव-देवीक गबैछलि पुण्य प्रेममयि लीला।।
वीणा-तार लाजसँ क्षीणा शिखि पिकि मौन अपारा।
बहि जाइत छल तखन तपोवन बीच विनोदक धारा।।