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शैलेन्द्र के प्रति / नागार्जुन

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'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।'
 
सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
 
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।
 
जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
 
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे ।
 
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
 
साथी थे, मज़दूर-पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम ।
 
युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा-सी छाई
 
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई ।
 
तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
 
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।
 
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
 
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती ।
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