भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा / कैफ़ी आज़मी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:10, 10 मई 2014 का अवतरण
शोर यूँ ही न परिंदों<ref>पक्षियों</ref> ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।
बानी-ए-जश्ने-बहाराँ<ref>वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों</ref> ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा।
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब<ref>धोखा</ref> उन को समंदर नज़र आया होगा।
बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
शब्दार्थ
<references/>