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"श्रद्धा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
 
तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
 
 
वेदना का यह कैसा वेग?
 
वेदना का यह कैसा वेग?
 
 
आह!तुम कितने अधिक हताश-
 
आह!तुम कितने अधिक हताश-
 
 
बताओ यह कैसा उद्वेग?
 
बताओ यह कैसा उद्वेग?
 
  
 
हृदय में क्या है नहीं अधीर-
 
हृदय में क्या है नहीं अधीर-
 
 
लालसा की निश्शेष?
 
लालसा की निश्शेष?
 
 
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,
 
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,
 
 
मन में घर सुंदर वेश
 
मन में घर सुंदर वेश
 
  
 
दुख के डर से तुम अज्ञात
 
दुख के डर से तुम अज्ञात
 
 
जटिलताओं का कर अनुमान,
 
जटिलताओं का कर अनुमान,
 
 
काम से झिझक रहे हो आज़
 
काम से झिझक रहे हो आज़
 
 
भविष्य से बनकर अनजान,
 
भविष्य से बनकर अनजान,
 
  
 
कर रही लीलामय आनंद-
 
कर रही लीलामय आनंद-
 
 
महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
 
महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
 
 
विश्व का उन्मीलन अभिराम-
 
विश्व का उन्मीलन अभिराम-
 
 
इसी में सब होते अनुरक्त।
 
इसी में सब होते अनुरक्त।
 
  
 
काम-मंगल से मंडित श्रेय,
 
काम-मंगल से मंडित श्रेय,
 
 
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
 
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
 
 
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
 
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
 
 
बनाते हो असफल भवधाम"
 
बनाते हो असफल भवधाम"
 
  
 
"दुःख की पिछली रजनी बीच
 
"दुःख की पिछली रजनी बीच
 
 
विकसता सुख का नवल प्रभात,
 
विकसता सुख का नवल प्रभात,
 
 
एक परदा यह झीना नील
 
एक परदा यह झीना नील
 
 
छिपाये है जिसमें सुख गात।
 
छिपाये है जिसमें सुख गात।
 
  
 
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
 
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
 
 
जगत की ज्वालाओं का मूल-
 
जगत की ज्वालाओं का मूल-
 
 
ईश का वह रहस्य वरदान,
 
ईश का वह रहस्य वरदान,
 
 
कभी मत इसको जाओ भूल।
 
कभी मत इसको जाओ भूल।
 
  
 
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
 
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
 
 
स्पंदित विश्व महान,
 
स्पंदित विश्व महान,
 
 
यही दुख-सुख विकास का सत्य
 
यही दुख-सुख विकास का सत्य
 
 
यही भूमा का मधुमय दान।
 
यही भूमा का मधुमय दान।
 
  
 
नित्य समरसता का अधिकार
 
नित्य समरसता का अधिकार
 
 
उमडता कारण-जलधि समान,
 
उमडता कारण-जलधि समान,
 
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व्यथा से नीली लहरों बीच
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बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"
 
बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"
 
  
 
लगे कहने मनु सहित विषाद-
 
लगे कहने मनु सहित विषाद-
 
 
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास
 
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास
 
 
अधिक उत्साह तरंग अबाध
 
अधिक उत्साह तरंग अबाध
 
 
उठाते मानस में सविलास।
 
उठाते मानस में सविलास।
 
  
 
किंतु जीवन कितना निरूपाय!
 
किंतु जीवन कितना निरूपाय!
 
 
लिया है देख, नहीं संदेह,
 
लिया है देख, नहीं संदेह,
 
 
निराशा है जिसका कारण,
 
निराशा है जिसका कारण,
 
 
सफलता का वह कल्पित गेह।"
 
सफलता का वह कल्पित गेह।"
 
  
 
कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,
 
कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,
 
 
तुम इतने हुए अधीर
 
तुम इतने हुए अधीर
 
 
हार बैठे जीवन का दाँव,
 
हार बैठे जीवन का दाँव,
 
 
जीतते मर कर जिसको वीर।
 
जीतते मर कर जिसको वीर।
 
  
 
तप नहीं केवल जीवन-सत्य
 
तप नहीं केवल जीवन-सत्य
 
 
करूण यह क्षणिक दीन अवसाद,
 
करूण यह क्षणिक दीन अवसाद,
 
 
तरल आकांक्षा से है भरा-
 
तरल आकांक्षा से है भरा-
 
 
सो रहा आशा का आल्हाद।
 
सो रहा आशा का आल्हाद।
 
  
 
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
 
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
 
 
करेंगे कभी न बासी फूल,
 
करेंगे कभी न बासी फूल,
 
 
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
 
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
 
 
आह उत्सुक है उनकी धूल।
 
आह उत्सुक है उनकी धूल।
 
  
 
पुरातनता का यह निर्मोक
 
पुरातनता का यह निर्मोक
 
 
सहन करती न प्रकृति पल एक,
 
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नित्य नूतनता का आंनद
नित्य नूतनता का आंनद  
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किये है परिवर्तन में टेक।
 
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युगों की चट्टानों पर सृष्टि
 
युगों की चट्टानों पर सृष्टि
 
 
डाल पद-चिह्न चली गंभीर,
 
डाल पद-चिह्न चली गंभीर,
 
 
देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति
 
देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति
 
 
अनुसरण करती उसे अधीर।"
 
अनुसरण करती उसे अधीर।"
 
  
 
"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
 
"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
 
 
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
 
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
 
 
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
 
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
 
 
यही जड़ का चेतन-आनन्द।
 
यही जड़ का चेतन-आनन्द।
 
  
 
अकेले तुम कैसे असहाय
 
अकेले तुम कैसे असहाय
 
 
यजन कर सकते? तुच्छ विचार।
 
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तपस्वी! आकर्षण से हीन
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कर सके नहीं आत्म-विस्तार।
 
कर सके नहीं आत्म-विस्तार।
 
  
 
दब रहे हो अपने ही बोझ
 
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खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
 
खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
 
 
तुम्हारा सहचर बन कर क्या न
 
तुम्हारा सहचर बन कर क्या न
 
 
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?
 
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?
 
  
 
समर्पण लो-सेवा का सार,
 
समर्पण लो-सेवा का सार,
 
 
सजल संसृति का यह पतवार,
 
सजल संसृति का यह पतवार,
 
 
आज से यह जीवन उत्सर्ग
 
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इसी पद-तल में विगत-विकार
 
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दया, माया, ममता लो आज,
 
दया, माया, ममता लो आज,
 
 
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,
 
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हमारा हृदय-रत्न-निधि
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स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।
 
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बनो संसृति के मूल रहस्य,
 
बनो संसृति के मूल रहस्य,
 
 
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
 
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
 
 
विश्व-भर सौरभ से भर जाय
 
विश्व-भर सौरभ से भर जाय
 
 
सुमन के खेलो सुंदर खेल।"
 
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"और यह क्या तुम सुनते नहीं
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विधाता का मंगल वरदान-
 
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'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
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विश्व में गूँज रहा जय-गान।
 
विश्व में गूँज रहा जय-गान।
 
  
 
डरो मत, अरे अमृत संतान
 
डरो मत, अरे अमृत संतान
 
 
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
 
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
 
 
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
 
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
 
 
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।
 
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।
 
  
 
देव-असफलताओं का ध्वंस
 
देव-असफलताओं का ध्वंस
 
 
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,
 
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,
 
 
पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति
 
पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति
 
 
पूर्ण हो मन का चेतन-राज।
 
पूर्ण हो मन का चेतन-राज।
 
  
 
चेतना का सुंदर इतिहास-
 
चेतना का सुंदर इतिहास-
 
 
अखिल मानव भावों का सत्य,
 
अखिल मानव भावों का सत्य,
 
 
विश्व के हृदय-पटल पर
 
विश्व के हृदय-पटल पर
 
 
दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।
 
दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।
 
  
 
विधाता की कल्याणी सृष्टि,
 
विधाता की कल्याणी सृष्टि,
 
 
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,
 
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,
 
 
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज
 
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज
 
 
और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।
 
और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।
 
  
 
उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प
 
उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प
 
 
कुचलती रहे खडी सानंद,
 
कुचलती रहे खडी सानंद,
 
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आज से मानवता की कीर्ति
आज से मानवता की कीर्ति  
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अनिल, भू, जल में रहे न बंद।
 
अनिल, भू, जल में रहे न बंद।
 
  
 
जलधि के फूटें कितने उत्स-
 
जलधि के फूटें कितने उत्स-
 
 
द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।
 
द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।
 
 
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति
 
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति
 
 
अभ्युदय का कर रही उपाय।
 
अभ्युदय का कर रही उपाय।
 
  
 
विश्व की दुर्बलता बल बने,
 
विश्व की दुर्बलता बल बने,
 
 
पराजय का बढ़ता व्यापार-
 
पराजय का बढ़ता व्यापार-
 
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हँसाता रहे उसे सविलास
हँसाता रहे उसे सविलास  
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शक्ति का क्रीडामय संचार।
 
शक्ति का क्रीडामय संचार।
 
  
 
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
 
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
 
 
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
 
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
 
 
समन्वय उसका करे समस्त
 
समन्वय उसका करे समस्त
 
 
विजयिनी मानवता हो जाय"।
 
विजयिनी मानवता हो जाय"।
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17:18, 4 फ़रवरी 2015 का अवतरण

तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह!तुम कितने अधिक हताश-
बताओ यह कैसा उद्वेग?

हृदय में क्या है नहीं अधीर-
लालसा की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,
मन में घर सुंदर वेश

दुख के डर से तुम अज्ञात
जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज़
भविष्य से बनकर अनजान,

कर रही लीलामय आनंद-
महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम-
इसी में सब होते अनुरक्त।

काम-मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असफल भवधाम"

"दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गात।

जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल-
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।

विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य
यही भूमा का मधुमय दान।

नित्य समरसता का अधिकार
उमडता कारण-जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"

लगे कहने मनु सहित विषाद-
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।

किंतु जीवन कितना निरूपाय!
लिया है देख, नहीं संदेह,
निराशा है जिसका कारण,
सफलता का वह कल्पित गेह।"

कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,
तुम इतने हुए अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव,
जीतते मर कर जिसको वीर।

तप नहीं केवल जीवन-सत्य
करूण यह क्षणिक दीन अवसाद,
तरल आकांक्षा से है भरा-
सो रहा आशा का आल्हाद।

प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
करेंगे कभी न बासी फूल,
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
आह उत्सुक है उनकी धूल।

पुरातनता का यह निर्मोक
सहन करती न प्रकृति पल एक,
नित्य नूतनता का आंनद
किये है परिवर्तन में टेक।

युगों की चट्टानों पर सृष्टि
डाल पद-चिह्न चली गंभीर,
देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति
अनुसरण करती उसे अधीर।"

"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड़ का चेतन-आनन्द।

अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार।
तपस्वी! आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म-विस्तार।

दब रहे हो अपने ही बोझ
खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
तुम्हारा सहचर बन कर क्या न
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?

समर्पण लो-सेवा का सार,
सजल संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग
इसी पद-तल में विगत-विकार

दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,
हमारा हृदय-रत्न-निधि
स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।

बनो संसृति के मूल रहस्य,
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
विश्व-भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो सुंदर खेल।"

"और यह क्या तुम सुनते नहीं
विधाता का मंगल वरदान-
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
विश्व में गूँज रहा जय-गान।

डरो मत, अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।

देव-असफलताओं का ध्वंस
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,
पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति
पूर्ण हो मन का चेतन-राज।

चेतना का सुंदर इतिहास-
अखिल मानव भावों का सत्य,
विश्व के हृदय-पटल पर
दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।

विधाता की कल्याणी सृष्टि,
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज
और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।

उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प
कुचलती रहे खडी सानंद,
आज से मानवता की कीर्ति
अनिल, भू, जल में रहे न बंद।

जलधि के फूटें कितने उत्स-
द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति
अभ्युदय का कर रही उपाय।

विश्व की दुर्बलता बल बने,
पराजय का बढ़ता व्यापार-
हँसाता रहे उसे सविलास
शक्ति का क्रीडामय संचार।

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय"।