भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"श्रम की महिमा / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
 
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
|संग्रह= }}{{KKCatKavita}}{{KKAnthologyGandhi}}
+
|संग्रह=  
[[Category:बाल-कविताएँ]]
+
}}
 +
{{KKCatBaalKavita}}
 +
<poem>
 
तुम काग़ज़ पर लिखते हो
 
तुम काग़ज़ पर लिखते हो
 
 
वह सड़क झाड़ता है
 
वह सड़क झाड़ता है
 
 
तुम व्यापारी
 
तुम व्यापारी
 
+
वह धरती में बीज गाड़ता है।
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
+
 
+
  
 
एक आदमी घड़ी बनाता
 
एक आदमी घड़ी बनाता
 
 
एक बनाता चप्पल
 
एक बनाता चप्पल
 
 
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
 
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
 
+
इसमें क्या बल।
इसमें क्या बल ।
+
 
+
  
 
सूत कातते थे गाँधी जी
 
सूत कातते थे गाँधी जी
 
+
कपड़ा बुनते थे,
कपड़ा बुनते थे ,
+
 
+
 
और कपास जुलाहों के जैसा ही
 
और कपास जुलाहों के जैसा ही
 
 
धुनते थे
 
धुनते थे
 
  
 
चुनते थे अनाज के कंकर
 
चुनते थे अनाज के कंकर
 
 
चक्की पिसते थे
 
चक्की पिसते थे
 
 
आश्रम के अनाज याने
 
आश्रम के अनाज याने
 
 
आश्रम में पिसते थे
 
आश्रम में पिसते थे
 
  
 
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
 
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
 
 
उनको आता था
 
उनको आता था
 
 
भंगी-काम सफाई से
 
भंगी-काम सफाई से
 
+
नित करना भाता था।
नित करना भाता था ।
+
 
+
  
 
ऐसे थे गाँधी जी
 
ऐसे थे गाँधी जी
 
 
ऐसा था उनका आश्रम
 
ऐसा था उनका आश्रम
 
 
गाँधी जी के लेखे
 
गाँधी जी के लेखे
 
+
पूजा के समान था श्रम।
पूजा के समान था श्रम ।
+
 
+
  
 
एक बार उत्साह-ग्रस्त
 
एक बार उत्साह-ग्रस्त
 
 
कोई वकील साहब
 
कोई वकील साहब
 
 
जब पहुँचे मिलने
 
जब पहुँचे मिलने
 
+
बापूजी पीस रहे थे तब।
बापूजी पीस रहे थे तब ।
+
 
+
  
 
बापूजी ने कहा - बैठिये
 
बापूजी ने कहा - बैठिये
 
 
पीसेंगे मिलकर
 
पीसेंगे मिलकर
 
 
जब वे झिझके
 
जब वे झिझके
 
 
गाँधीजी ने कहा
 
गाँधीजी ने कहा
 
 
और खिलकर
 
और खिलकर
 
  
 
सेवा का हर काम
 
सेवा का हर काम
 
 
हमारा ईश्वर है भाई
 
हमारा ईश्वर है भाई
 
 
बैठ गये वे दबसट में
 
बैठ गये वे दबसट में
 
+
पर अक्ल नहीं आई।
पर अक्ल नहीं आई ।
+
  
 
१९६९
 
१९६९
 +
</poem>

12:08, 12 मार्च 2016 के समय का अवतरण

तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है।

एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल।

सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे

चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पिसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे

जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था।

ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम।

एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब।

बापूजी ने कहा - बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर

सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई।

१९६९