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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी २ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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15:13, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

हम मानते हैं
तुम मिले हों एक बंजर
धरती पर ƒघने छांव से

कुछ पल तुम्हारे पास
रुकी तो लगा अंकुर पनपता है
पत्थरों पर भी
होती है उनमें भी जीने की चाह
स्पर्श की बूंदें
रोपती हैं बीज उनमें

और फूटती है ज़िन्दगी
पत्थरों के ओर-छोर से।