भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सबके सब बहरे / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Sheelendra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:44, 13 मार्च 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सबके सब बहरे

होठों पर लगे हुये
फौलादी पहरे
किससे क्या कहना है
सबके सब बहरे

राजा का दरबारी
विप्लव का अगुवा
मनमाना खेल रहा
दौलत का फगुवा
डूबा है राजमहल
रंगो में गहरे

हड़तालें ,आन्दोलन
बेमतलब बातें,
सिक्कों पर तुली हुयी
सबकी औकातें
मंजिल तक जाने के
गलियारे सँकरे

भाषण उम्मीदों के
कागजी मसौदे,
महँगी बाजारों नें
खुले आम रौंदे,
सूरज के आँगन में
अँधियारे पसरे।