भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सलाखें न टूटें इन आँखों की जानम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | सलाख़ें न टूटें इन आँखों की जानम। | |
− | मेरी | + | मेरी क़ैद में तू तेरी क़ैद में हम। |
− | रहें | + | रहें क़ैद दोनों ही जब तक रहे दम। |
− | खड़ा | + | खड़ा ले के चाबी भले ही रहे ग़म। |
तू क्या जाने तेरे बदन का ये रेशम। | तू क्या जाने तेरे बदन का ये रेशम। | ||
मेरी आँख की हर चुभन का है मरहम। | मेरी आँख की हर चुभन का है मरहम। | ||
− | न हों तेरी पहली मुहब्बत, नहीं | + | न हों तेरी पहली मुहब्बत, नहीं ग़म। |
हों पर आख़िरी प्यार केवल हमीं हम। | हों पर आख़िरी प्यार केवल हमीं हम। | ||
12:51, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
सलाख़ें न टूटें इन आँखों की जानम।
मेरी क़ैद में तू तेरी क़ैद में हम।
रहें क़ैद दोनों ही जब तक रहे दम।
खड़ा ले के चाबी भले ही रहे ग़म।
तू क्या जाने तेरे बदन का ये रेशम।
मेरी आँख की हर चुभन का है मरहम।
न हों तेरी पहली मुहब्बत, नहीं ग़म।
हों पर आख़िरी प्यार केवल हमीं हम।
बने हर नदी अंत में ख़ुद समंदर,
नहीं गर यहाँ तो वहाँ होगा संगम।