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साँझ और मन्नू / शलभ श्रीराम सिंह

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गुनगुनाती हुई साँझ के आँगन में
चिड़ियों के पीछे किलकते हुए
शिशु-सा कोलाहल !
मेरी आँखों के आगे
डालियों के फूल हवा में तैर कर
ख़ामोश किलकारियाँ पिये जा रहे हैं !
रंग-वर्षी बादलों के नन्हें शिशु
मेरी बरौनियों तक झुक कर कहते हैं :
मैं मन्नू हूँ !

एक झटका-सा लगता है !
मेरे हाथ की किताब
टाफी का डब्बा बन जाती है !
साँझ का सम्पूर्ण वातावरण मन्नू
और मैं उसका चाचा ...!
(1961)