भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साथी... तुम यहीं तो मिले हो / विवेक चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:56, 23 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विवेक चतुर्वेदी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरसों बाद आज
तुम्हारे शहर से गुज़रा तो
जो मुझे छूकर गयीं नम हवाएँ
तुम्हारी उदास आँखें ही तो हैं
शहर के आसमान पर
घिरे हैं काले बादल वो
तुम्हारी आँख का काजल है
जो रोते-रोते फैल गया है
 रेल की पटरी के दोनों ओर
फूल आए हैं जो कनेर के पीले फूल
तुम्हारी भोली हँसी ही
उनमें बदल गई है
तुम्हारे नन्हें पैर मेंहदी के
छोटे पौधों से उग आए हैं
तुम्हारी धानी कुर्ते से
निकल पड़ा है हरी घास का मैदान
उसमें बच्चे खेल रहे हैंं
कभी कभी तुम जो देती थीं पूजा
वो चौक पर छोटा सा
तुलसीवन हो गई है
तुम्हारी घेरदार स्कर्ट
 नहर हो गई है
चुन्नी पर खिली ढेर सारी बिंदियां
स्कूल जाती लड़कियों में दौड़ रही हैं
तुम्हारे पसीने की गंध
काम पर जाती मेहनतकश
मजदूरिनों में बदल गई है
मेरे रोकने पर भी
तुम जो पूछती थीं
सवाल हर जगह
वो अब सड़क पर जाते
जुलूस हो गए हैं
उनींदा नहीं है अब (Continued)
ये शहर जरा चिल्लाता है
ये शहर अब भी तुम्हारी तरह
साइकिल चलाता है
जिसकी चेन उतरती है
तो वो शर्मीला लड़का चढ़ाता है
तुम्हारी ही तरह ये शहर
जंगल की एक सड़क पर
आकर गुम हो जाता है
फिर उसका पता कोई भी
नहीं बताता है
तुम्हारी ही तरह हाथ पकड़ कर
शाम को रोता है शहर
पर रात न जाने कहाँ चला जाता है
बरसों बाद आज तुम्हारे
शहर से गुजरा हूँ तो
साथी... तुम यहीं तो मिले हो
बस अफवाह थी
कि तुम ये शहर छोड़ गए हो।