भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:41, 14 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मुनव्वर राना |संग्रह=घर अकेला हो गया / मुनव्वर र...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है

ये सच है हम भी कल तक ज़िन्दगी पे नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी रेल लगती है

ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद
चलो संसद में चलते हैं वहाँ भी सेल लगती

कोई भी अन्दरूनी गन्दगी बाहर नहीं होती
हमें तो इस हुक़ूमत की भी किडनी फ़ेल लगती है.