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Kavita Kosh से
मन पर खड़ा था वेदना का मेरु, वह ढ़हने लगा
अपने भविष अनागत का कांतिमय नव-सुनहला रूप मैं गढ़ने लगी
नूतन उमंगों से भरी, हरि राह मैं तकने लगी