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सुनो कि मंगल-गान उभरता है / हरीश प्रधान

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हो मूर्तिमान अनुराग कर्म का रूप
दीप की बेला में,
सुनो कि मंगलगान उभरता है!

भीषणतम घोर निराशा में जो घिरे हुए
नित नये विवादों की झंझा से डरे हुए
निस्तेज आलसी हाथ - हाथ पर धरे हुए

है नहीं, चाक के भाग्य-चक्र से फिरने में
कल की रौंदी माटी का रूप सँवरता है,
सुनो कि मंगलगान उभरता है!

अब नहीं निराश बादल से पंख पसारे
श्री का स्वागत घर आँगन चमके तारे
दो कदम बढ़ाओ दूर न लक्ष्य हमारे

समवेत हृदय से घर-घर दीप जलाने में
तम का घटता बाज़ार ज्योति का रूप निखरता है
सुनो कि मंगलगान उभरता है!

मावस कीकाली रात कहाँ? दीवाली है
चौड़े ललाट पर स्वेद, हाथ में तेज कुदाली है
सुख, साधन, समृद्धि की राह निकाली है

नदियों पर बाँधे- बाँध लहर संग इतराने में
तमसो मा ज्योर्तिमय स्वर आज बिखरता है
सुनो कि मंगलगान उभरता है!