भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो सागर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 2 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त बीता
आँख जब बहती नदी थी
दूसरों के दर्द को
महसूस करने की सदी थी

चाँद भी तब था नहीं हरदम
अधेरे पाख में
सुनो सागर!

नेह करुणा की नदी वह
अभी पिछले दिनों सूखी
चल रही थीं बहुत पहले से
हवाएँ तेज़ रुखी

मर चुकी हैं कोपलें भी आख़िरी
इस शाख में
सुनो सागर!

बूँद भर जल ही बहुत
जो आँख को सागर करेगा
मेंह बन कर वही
सूखी हुई नदियों को भरेगा

प्राण फूटेगा उसी क्षण चिता की
इस राख में
सुनो सागर!