भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सोच की सीमाओं के बाहर मिले / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 +
{{KKVID|v=x1bci7IlB9A}}
 
<poem>
 
<poem>
 
सोच की सीमाओं के बाहर मिले
 
सोच की सीमाओं के बाहर मिले

19:06, 4 फ़रवरी 2014 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

सोच की सीमाओं के बाहर मिले
प्रश्न थे कुछ और कुछ उत्तर मिले

किसकी हिम्मत खोलता अपनी जुबाँ
उनके आगे सब झुकाए सर मिले

घर बुलाया था बड़े आदर के साथ
लो महाशय ख़ुद नहीं घर पर मिले

बेचने को ख़ुद को तत्पर हैं सभी
जब जिसे, जैसा, जहाँ अवसर मिले

हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले

हर ख़ुशी ने औपचारिक भेंट की
दर्द सब हमसे बहुत खुलकर मिले

उम्र भर वो पेड़ फल देता रहा
फिर भी दुनिया से उसे पत्थर मिले

ऐ ‘अकेला’ न्याय ज़िन्दा है कहाँ
घर बनाने वाले ही बेघर मिले