भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम बहुत कायल हुए हैं / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 15 अप्रैल 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम बहुत कायल हुए हैं
आपके व्यवहार के।
आँख को सपने दिखाए
प्यास को पानी ।
इस तरह होती रही
हर रोज़ मनमानी।
शब्द भर टपका दिए दो
होंठ से आभार के।

लाज को घूँघट दिखाया
पेट को थाली।
आप तो भरते रहे पर
हम हुए ख़ाली।
पीठ पर कब तक सहें
चाबुक समय की मार के।

पाँव को बाधा दिखाई
हाथ को डण्डे।
दे दिए बैनर किसी ने
दे दिए झण्डे।
हो सके कब जीत के हम
हो सके कब हार के।