भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरियाली - १ / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फल गिरे नहीं की
वृक्षों का काम फिर से शुरू
और था कितना बचकाना प्रयास मेरा
सब कुछ देख लेना चाहता था
अपनी खुली-खुली आँखों से
और हँसते होंगे वृक्ष भी मुझ पर
कितना सारा समय तो निकाल ही दिया
चाँद की तरह मेरी जिन्दगी
कभी पूरी की पूरी
फिर घटती - बढ़ती हुई
हरियाली तुम भी तो इसी तरह हो ।