भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर आँख द्रौपदी है / कुँअर बेचैन

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:09, 8 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन |संग्रह=डॉ० कुंवर बैचेन के नवगीत / क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखों में सिर्फ़ बादल, सुनसान बिजलियाँ हैं,
अंगार है अधर पर सब साँस आँधियाँ हैं
रग-रग में तैरती-सी इस आग की नदी है।
यह बीसवीं सदी है।
इक डूबती भँवर ने सब केशगुच्छ बाँधे
बारूद की दुल्हन को देकर हज़ार काँधे
हर पालकी दुल्हन से करने लगी वदी है।
यह बीसवीं सदी है ।
बीमार बाग-सी ही है यह अजीब दुनिया
इस प्राणवान तरू की मृतप्राय हम टहनियाँ
इक काँपती उदासी हर शाख पर लदी है।
यह बीसवीं सदी है।
हर मोड़ पर गली के ये शर्मनाक बातें
टूटी हुई सड़क पर दुर्गंध की बरातें
हर डूबती सुबह ने फिर सुर्ख शाम दी है।
यह बीसवीं सदी है।
हर सत्य का युद्धिष्ठिर, बैठा है मौन पहने
ये पार्थ, भीम सारे आए हैं, जुल्म सहने
आँसू हैंचीर जैसे हर आँख द्रौपदी है।
यह बीसवीं सदी है।